हार-हार समझा मैं तुमको अपने पार। हँसी बन खिली साँझ - बुझने को ही। एक हाय-हाय की रात बीती न थी, कि दिन हुआ। हार-हार ...
(1941)
हिंदी समय में शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएँ
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